लाभ का पद क्या होता है?
भारत के संविधान में अनुच्छेद 102(1)(a) के अंतर्गत संसद सदस्यों के लिये तथा अनुच्छेद 191(1)(a) के तहत राज्य विधानसभा के सदस्यों के लिये ऐसे किसी भी लाभ के पद को धारण करने का निषेध किया गया है
जिससे उस पद के धारण करने वाले को किसी भी प्रकार का वित्तीय लाभ मिलता हो।
भारतीय संविधान के अनुछेद 191(1)(a) के अनुसार, अगर कोई विधायक किसी लाभ के पद पर आसीन पाया जाता है तो विधानसभा में उसकी सदस्यता को अयोग्य करार दिया जा सकता है।
इसका महत्त्व क्या है?
यह अवधारणा संसद व राज्य विधानसभा के सदस्यों की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखती है।
यह विधायिका को कार्यपालिका से किसी अनुग्रह या लाभ प्राप्त करने से रोकती है।
यह विधायी कार्यों व किसी भिन्न पद के कर्त्तव्यों में होने वाले टकराव को रोकती है।
इस संबंध में न्यायालय की क्या भूमिका है?
चूँकि लाभ के पद के संदर्भ में भारत में कोई स्थापित प्रक्रिया मौजूद नहीं है। अत: ऐसे में न्यायालय की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है- गोविन्
द बसु बनाम संकरी प्रसाद गोशाल मामले में गठित संविधान पीठ ने लाभ के पद के संदर्भ में कई कारक निर्धारित किये हैं, जैसे- नियुक्तिकर्त्ता, पारितोषिक या लाभ निर्धारित करने वाला प्राधिकारी, पारितोषिक के स्रोत आदि।
अशोक भट्टाचार्य बनाम अजोय बिस्वास मामले में न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा था कि कोई व्यक्ति लाभ के पद पर है या नहीं, यह निर्धारित करने के लिये प्रत्येक मामले को उपयुक्त नियमों और अनुच्छेदों को ध्यान में रखकर ही निर्णय किया जाना चाहिये।
स्पष्ट है कि लाभ के पद के संदर्भ में न्यायालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। फिर भी इस संदर्भ में एक सुस्पष्ट नियम का अभाव देखा गया है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, संविधान में ये धारा रखने का उद्देश्य विधानसभा को किसी भी तरह के सरकारी दबाव से मुक्त रखना था। क्योंकि अगर लाभ के पदों पर नियुक्त व्यक्ति विधानसभा का भी सदस्य होगा तो इससे निर्णयों के प्रभावित होने का अंदेशा बना रहता है।